Debate on a less painful method than the death penalty

Editorial: फांसी की सजा से कम दर्दनाक तरीके पर बहस जरूरी

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Debate is necessary on a less painful way than the death penalty

Debate is necessary on a less painful way than the death penalty देश में मौत की सजा को अंजाम देने के लिए फांसी से कम दर्दनाक तरीका क्या हो सकता है? दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय ने इस विषय पर बहस को जन्म दिया है। माननीय शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से इस विषय पर चर्चा शुरू करने और यह जांचने के लिए आवश्यक जानकारी एकत्र करने को कहा है। शीर्ष अदालत ने यह भी संकेत दिया कि वह राष्ट्रीय कानून विश्वविद्यालयों और एम्स से भी विशेषज्ञों का एक पैनल गठित करने के लिए तैयार है।

अदालत ने यह पता लगाने के लिए मई तक का समय दिया कि क्या फांसी की सजा के मुकाबले अधिक मानवीय तरीके व फांसी से मौत की सजा के प्रभाव का पता लगाने के लिए कोई अध्ययन किया गया है। वास्तव में फांसी की सजा वह अंतिम दंड है, जिसके जरिये किसी का जीवन ही उससे छीन लिया जाता है। हालांकि इससे पहले उस दोषी के कृत्य का पूरा गुणा भाग होता है, जिसके लिए उसे फांसी की सजा मिलती है। ऐसे में सवाल यह है कि जिस कृत्य के लिए उसे फांसी की सजा मिल रही है, वैसा ही कृत्य दूसरे न कर सकें और जिसने किया, उसे इसके अहसास से बचाने की आवश्यकता ही क्या है?

 दरअसल, पीठ ने कहा कि हम इस मामले को तकनीक और विज्ञान के नजरिये से देख सकते हैं कि क्या ज्ञान का आज का चरण कहता है कि फांसी सबसे अच्छा तरीका है। क्या हमारे पास वैकल्पिक तरीकों के बारे में भारत या विदेश में कोई डाटा है। या क्या हम एक समिति बना सकते हैं? शीर्ष अदालत ने 6 अक्तूबर 2017 को इस मामले में केंद्र को नोटिस जारी किया था, जिसमें याचिकाकर्ता ने कहा था, जिस दोषी का जीवन समाप्त होना है, उसे फांसी की पीड़ा सहने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। गौरतलब है कि याचिका में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा- 354 (5) के तहत निहित प्रावधान को रद्द करने के निर्देश की मांग की गई थी। याचिका में कहा गया था कि यह संविधान और विशेष रूप से अनुच्छेद- 21 के तहत भेदभावपूर्ण है और साथ ही जियान कौर के मामले (1962) में संविधान पीठ के निर्णय का उल्लंघन भी है।

 दरअसल, फांसी की सजा को नरम बनाने के संबंध में ऐसे किसी प्रावधान के अस्तित्व पर ही सवाल उठने चाहिए। मौजूदा समय में निर्भया रेप कांड में दोषियों को फांसी की सजा का मामला सर्वाधिक चर्चित रहा है और देश ने दोषियों की जीने की ललक लेकिन पीडि़ता के परिवार ने उन्हें सजा दिलाने की जैसा साहस दिखाया, वह बताता है कि फांसी की सजा पाए दोषी को इसका कठोरतम अहसास भी कराए जाने की जरूरत है कि उसने ऐसा क्या किया, जिसके लिए यह कठोरतम सजा मिली है। अभी भी लाखों ऐसे केस हैं, जिनमें किसी महिला की अस्मत को चोट पहुंचाई और उसके जीवन को दुभर कर दिया लेकिन दोषियों को अदालतों से सहजता से जमानत मिल जाती है, या उनके मामले अदालतों तक पहुंचते ही नहीं है।

अब जिनके मामले अदालत तक पहुंच जाते हैं, उनमें मुश्किल से दस साल या फिर आजीवन कारावास की सजा सुना दी जाती है, फांसी की सजा तो फिर भी दुर्लभ मानी जाती है। अब अगर यह तय हो गया है कि किसी ने ऐसा कृत्य किया है, जिसके लिए उसे फांसी की सजा ही सही है तो फिर उसके लिए मौत के तरीके में भी कुछ रियायत जैसी चीज ही नहीं होनी चाहिए।

हमें यह समझना चाहिए कि आखिर निर्भया के पिता ने यह क्यों कहा था कि दोषियों को फांसी की सजा तय होने का दिन उनके लिए त्योहार जैसा है। दिल करता है सबके साथ खुशियां बांटूं। वास्तव में हम त्योहार और खुशियां तब मनाते हैं जब हम विजय हासिल करते हैं या कोई मनोनुकूल बात पूरी होती है। इस केस में किसी की मौत पर खुशी मनाने की बात अप्राकृतिक लगती है, लेकिन एक ऐसा अपराध जो किसी युवती के शरीर मात्र को खत्म न करके उसकी आत्मा तक को टुकड़े-टुकड़े कर दे, उसको अंजाम देने के दोषियों की सजा पर अगर खुशी जाहिर की जाती है तो इसमें क्या गलत है। देश की प्रत्येक बेटी और महिला जोकि ऐसे अपराध से दो-चार होती है, के दोषियों को यही सजा मिलनी चाहिए।

अदालत में दोषियों में से एक की मां ने कहा कि उसकी भावनाओं को समझा जाए, वह मां है। वास्तव में ऐसे अपराध के लिए महज किसी का जीवन खत्म करना मकसद नहीं हो सकता, मकसद उसे उसके अपराध की गंभीरता का अहसास कराना है। फांसी के विकल्प पर विचार हो सकता है, लेकिन यह जरूरी है कि किसी को फांसी की सजा मिलने के बाद उसके लिए इसका अहसास खत्म न होने पाए। 

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